NASH: अगर लिवर स्वस्थ नहीं रहेगा तो हमारा शरीर भी अच्छे से काम नहीं करेगा। लिवर मानव शरीर का सबसे बड़ा अंग माना जाता है क्योंकि यही वो अंग है जो हमारे शरीर से वेस्ट प्रोडक्ट को बाहर निकालता है. आजकल हमारी लाइफस्टाइल की वजह से ये तेजी से खराब हो रहे हैं. खासकर फैटी लीवर के मामले दुनियाभर में बढ़ रहे हैं. फैटी लीवर यानी जब लीवर में फैट ज्यादा बढ़ जाता है. अगर ये बढ़ता जाए तो लिवर तक डैमेज हो सकता है.
NASH: इलाज के लिए पहली दवा को मंजूरी दे दी
इस बीच लिवर की समस्या से जूझ रहे मरीजों के लिए अमेरिका ने राहत की खबर दी है. अमेरिका की फुड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन यानी एफडीए ने गंभीर लिवर की बीमारी के इलाज के लिए पहली दवा को मंजूरी दे दी है. दवा NASH यानी नॉन अल्कोहलिक स्टीटोहेपेटाइटिस नाम की लिवर के सूजन के लिए बनाई गई है. इससे सबसे ज्यादा मदद युवाओं को मिलेगा. दवा का नाम रेजडिफ्रा (रेस्मेटिरोम) है.
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NASH को मेटाबॉलिक डिसफंक्शन-एसोसिएटेड स्टीटोहेपेटाइटिस या MASH के नाम से भी जाना जाता है. इसमें ज्यादा फैटी सेल्स की वजह से लीवर में सूजन हो जाती है. समय के साथ लीवर की सूजन घाव में तब्दील हो जाती है जिसकी वजह से लिवर डिसफंक्शन हो जाता है
यानी लिवर काम करना बंद कर देता है. एफडीए के मुताबिक टाइप 2 डायबिटीज हाई ब्लड प्रेशर जैसी बीमारियां भी अक्सर NASH से जुड़ी होती हैं. एफडीए के आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में लगभग 60 से 80 लाख लोगों को मध्य से गंभीर लीवर के घाव के साथ एनएएसएच है.
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साइड इफेक्टस क्या है दवा के लिवर से पीड़ित मरीज़ को लिए ऐसी कोई दवा नहीं थी जो सीधे लीवर के घाव का इलाज कर पाए. रेज़डिफ्रा की मंजूरी इन रोगियों के लिए वरदान से कम नहीं होगी. रेज़डिफ़्रा दवा के साइड इफेक्टस में दस्त और मतली शामिल हैं.
इसके अलावा लिवर टॉक्सिटी और गॉल ब्लैडर संबंधी दुष्प्रभाव शामिल हैं. सिरोसिस वाले मरीजों को रेज़डिफ़्रा का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह गई है. इस बीच अगर मरीज़ों में लिवर को खराब करने वाले लक्षण दिखते है तो उन्हें इस दवा से इलाज जल्द से जल्द से बंद कर देना चाहिए.
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भारत में कितने फैटी लीवर के मरीज?
एम्स का एक हालिया अध्ययन कहता है कि भारत में एक तिहाई (38 प्रतिशत) से अधिक लोगों को फैटी लीवर या नॉन-अल्कोहल फैटी लीवर NAFLD रोग है.
नॉन-अल्कोहल फैटी लीवर शराब के सेवन से नहीं होता है. जून 2022 में जर्नल ऑफ क्लिनिकल एंड एक्सपेरिमेंटल हेपेटोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि यह बीमारी सिर्फ बड़ों तक ही सीमित नहीं है बल्कि लगभग 35 प्रतिशत बच्चों को भी प्रभावित करती है.